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कुंभ (Kumbh) - कुंभ मेला (Kumbh Mela) - महाकुंभ (Mahakumbh) - कुंभ की महानता - हरिद्वार की श्रेष्ठता - (Mayapuri, Kapila, Gangadwar) - Gateway to Gods - अर्द्धकुंभ (Ardh Kumbh) - अर्ध कुंभ मेला (Ardh Kumbh Mela)

कुंभ तथा अर्द्धकुंभ कुंभ लोक परम्परा का ऐसा पर्व है, जिसमें दर्शन, इतिहास, अध्यात्म और ज्योतिष के साथ-साथ अपराजेय जनास्था का अद्भुत समन्वय है। 'मृत्योर्मामृत गमय' की भारतीय जीवन दृष्टि मूलत: कुंभ के इस लोकपर्व की पृष्ठभूमि है। एक निश्चित ग्रह स्थिति में निर्धारित स्थानों पर और निर्धारित समय पर लाखों लोग एकत्र होकर न केवल पवित्र स्नान करते हैं, बल्कि विचारों का आदान-प्रदान भी करते हैं।
इस अभूतपूर्व विराट पर्व कुंभ का आयोजन, विश्व की सर्वाधिक प्राचीन लोकतांत्रिक व्यवस्था है। इस व्यवस्था के अंतर्गत चार स्थानों, गंगा तट पर हरिद्वार एवं प्रयाग, गोदावरी तट पर यम्बेशर (नासिक) और शिप्रा तट पर उज्जैन में बारह वर्षों के कालखंड के भीतर निश्चित ग्रह स्थिति में कुंभ का आयोजन निश्चित किया गया है।
बृहस्पति के कुंभ राशि में स्थित होने पर जब सूर्य मेष राशि में संक्रमण करता है, तब हरिद्वार में कुंभ पर्व का योग होता है। प्रयाग, नासिक तथा उज्जैन में आयोजित कुंभ मेले भी इसी प्रकार ग्रह स्थिति तथा राशि विचार से सुनिश्चित होते हैं। जनश्रुति के अनुसार इन चार स्थानों पर सागर मंथन से प्राप्त अमृत कलश के लिए देवताओं व दानवों के बीच हुए संघर्ष में अमृत-घट से अमृत छलका था। अमृत की प्राप्ति के लिए लाखों लोग हजारों वर्षों से निर्धारित समय तथा स्थान पर पवित्र स्नान करते हैं।
History of origin of Names Uttarakhand, Garhwal, and Kumaun, उत्तराखंड, कुमाऊं तथा गढ़वाल
Kumbh - Kumbha or Mahakumbh paintings on different - different places of Hindu mythological city Haridwar( also called as Mayapuri, Kapila, Gangadwar (Gateway to Gods) in ancient times.
भारतीय वाङ्मय में 'कुंभ', स्नान का सारगर्भित प्रतीक शब्द है। अथर्ववेद की एक ऋचा में कुंभ शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया है कि काल (समय) के ऊपर भरा हुआ कुंभ रखा है। इसी काल में ज्ञान समाहित है और इसी से वेदों की उत्पत्ति हुई है। इससे स्पष्ट है कि 'कंभ' ज्ञान का प्रतीक है। ज्ञान ही अमृत है। इसी अमृत की प्राप्ति कंभ पर्व का उद्देश्य है। __ धर्मप्राण भारत के जन-जीवन में कुंभ (कलश) का विशिष्ट स्थान रहा है। सुसज्जित कुंभ (कलश), कला और संस्कृति का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता, बल्कि वह संपूर्ण सृष्टि तथा पूर्ण व्यक्तित्व का प्रतीक भी माना गया है। यही नहीं, कलश को ब्रह्मा, विष्णु और महेश का साक्षात् रूप माना गया है। सात द्वीपों, सात सागरों और चार वदा का इसी कुंभ (कलश) के विभिन्न अंगों में समाया हुआ माना गया है।

कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले तत्र स्थितियो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा: स्मृताः।।
कुक्षी तु सागराः सर्वे, सप्त द्वीपा वसुंधरा।
ऋग्वेदोश्च यजुर्वेदो सामवेदोथर्वणः।।
आनेशव संहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रितः॥

World-famous Ganga aarti of the historical city of Hindus - Haridwar

महाकुंभ (Mahakumbh) - कुंभ मेला (Kumbh Mela)

कंभ अर्थात कलश की पूजा सर्वप्रथम करने का विधान सनातन धर्म के भारतीयों में सर्वत्र पाया जाता है। पुराणों में कलश को अमृत-घट कहने की अभिप्राय है। 'पीयूष धारणार्थाय निर्मितो विश्वकर्मणा' के अनुसार इसक सागर-मंथन से उद्भूत पीयूष (अमृत) रखने के लिए किया गया था।
श्रीमद्भागवत, स्कंदपुराण और महाभारत आदि ग्रंथों में एक कथा दर वर्णित है। राजा बलि से जब देवतागण पराजित हो गए और जगह-जगह भटकर, तो अंत में वे भगवान के पास अपनी दुर्दशा का बखान करने बैकुंठधाम पहँचे। पा ने देवताओं को आपदुद्धर्म का महत्त्व समझाया कि 'विपदा में बलवान शत्रु से मेल का हितकर होता है, इसलिए ऐसे समय तुमको राजा बलि से मेल कर लेना चाहिश मेल-मिलाप कर तुम्हें राजा बलि को समुद्र-मंथन के लिए मना लेना चाहिए समुद्र-मंथन से रत्न, औषधि और अमृतादि कई दुर्लभ दिव्य वस्तुएँ प्राप्त होंगी, जिन्हें तुम अपने विशिष्ट ज्ञान से बाँट लेना, ताकि तुम्हारी शक्ति असुरों से बढ़ती रहे।
भगवान के आदेशानुसार देवताओं ने बलि से मेल-मिलाप बढ़ाया और अंत में विश्व कल्याणार्थ विचार-विमर्श किया गया। दोनों पक्षों ने समुद्र-मंथन करने का प्रस्ताव मान लिया। समुद्र-मंथन के लिए मथनी (विचार स्तंभ) की जगह मंदराचल पर्वत को बनाया। वासुकी नाग उस विचार स्तंभ को घुमाने वाले संचालक (डोरी) बने, जिन्हें एक ओर से देवों ने पकड़ा और दूसरी ओर से दानवों ने पकड़कर मथनी के सहारे घुमाना शुरू किया। मथनी के आधार स्वयं भगवान, कच्छप बनकर उस मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण करने वाले बने, जिससे क्षीर सागर को मथने में कोई कठिनाई न हो।
समुद्र-मंथन प्रारंभ हुआ। पहले विष निकला, जिसको पीने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। अंत में शिवजी ने सारा विष पी लिया। तभी से वे नीलकंठ भगवान कहलाए। दूसरी बार कामधेनु गाय निकली, जिसे ऋषियों को दे दिया गया। तीसरी बार उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला, उसे राजा बलि को दे दिया गया। समुद्र-मंथन से चौथी बार ऐरावत हाथी निकला, जिसे इंद्र को भेंट किया गया। पाँचवीं बार कौस्तुभमणि प्राप्त हुई, जिसे भगवान विष्णु को समर्पित किया गया। छठी बार पारिजात नामक वृक्ष निकला। सभी जीवों के हितार्थ यह वृक्ष देवताओं को भेंट किया गया। सातवीं बार नृत्य गुणन्त्विना रम्भा नाम की अप्सरा निकली। उसे स्वर्ग की नर्तकी बना दिया गया। आठवीं बार लक्ष्मी जा निकलीं, जिन्होंने स्वयं अपनी इच्छा से विष्णु भगवान को वरण कर लिया। नवीं बार वारुणी निकली, उसे दैत्यों ने ले लिया। दसवीं बार बाल चंद्रमा प्राप्त हुआ। उसे संसार के कल्याणार्थ आकाश में स्थान दिया गया। ग्यारहवीं बार शंख, बारहवीं बार हरिधनु और तेरहवीं-चौदहवीं बार हाथ में अमृत-कुंभ लिये धन्वंतरि वैद्य प्रकट हुए। यह वहा कुभ-कलश था, जिसका निर्माण बड़े कौशल से देवताओं की संपूर्ण कला समेटकर अमृत रखने के लिए किया गया था।
सदज्ञान (अमृत) के लिए ही यह समुद्र-मंथन हो रहा था। अमृत-घट को देखकर समुद्र मंथन का कार्य बंद हो गया। देव-दानव अमृत-घट को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने लगे। बृहस्पति के इशारे पर इंद्र-पुत्र जयंत 'अमृत-कलश' को लेकर भागे। दैत्य-गुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दानव-दल अमृत-कलश (घट) को छीनने के लिए जयंत के पीछे-पीछे दौड़े। अमृत-कलश को अपने-अपने अधिकार में रखने के लिए देव-दानवों में 12 दिन तक संघर्ष होता रहा। इस अवधि में प्रतिदिन अमृत-कलश को सुरक्षा की दृष्टि से अलग-अलग 12 स्थानों में रखा गया। इन बारह स्थानों में से आठ स्थान स्वर्ग और चार स्थान भूमंडल में स्थित हैं। भूमंडल के चार स्थानों में हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक हैं। इन्हीं चार स्थानों पर अमृत-पूरित कुंभ को रखने-उठाने से अमृत की बूंदें छलकी थीं। अत: इन चारों स्थानों पर प्रत्येक बारहवें वर्ष कुंभ महापर्व का आयोजन होता है। देवताओं के बारह दिन भूमंडल के लोगों के बारह वर्ष के बराबर होते हैं। इसीलिए यह पर्व बारहवें वर्ष मनाया जाता है, जिसे पूर्ण कुंभ की संज्ञा दी गई है। हरिद्वार एवं प्रयाग में एक कुंभ पर्व से दूसरे कुंभ पर्व के बीच छ: वर्ष के बाद अर्द्धकुंभ का आयोजन होता है। ग्रहों की युति को देखकर कुंभ पर्व की तिथियाँ निश्चित की जाती हैं।

सूर्येन्दु गुरु संयोगः स्तद्वाशौ यत्र वत्सरे।
सुधा कुम्भप्लवे भूमौ कुम्भो भवति नान्यथा॥
(अर्थात् जिस दिन सुधा कुंभ गिरने की राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग हो, उस समय पृथ्वी पर कुंभ पर्व का योग पड़ता है।)

हरिद्वार की श्रेष्ठता - कुंभ की महानता
Mayapuri, Kapila, Gangadwar - Gateway to Gods

सनातन जगत में कुंभ पर्व में नहाने का विशेष महत्त्व आँका गया है। यद्यपि कुंभ पर्व के स्नानों का चारों स्थानों में विशेष माहात्म्य है, परंतु विशिष्ट कुंभ हरिद्वार का ही माना गया है, क्योंकि कुंभ राशि का पर्व तो हरिद्वार में ही पड़ता है।

कुम्भ योगे हरिद्वारे यह स्नानेन यत्फलम।
नाश्वमेध सहस्रेण सत्फलं लभते भुवि॥
(अर्थात् हजारों अश्वमेध यज्ञ करने से भी जो ऐश्वर्य प्राप्त नहीं हो सकता, वह एश्वये, मात्र हरिद्वार में कुंभ पर्व के अवसर पर स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।) कुंभ पर्व का योग गंगाद्वार (हरिद्वार) में कुंभ राशि में बहस्पति होने से ही माना गया है।)

पदमिनी नायके मेषे कुम्भ राशिगतो गुरुः।
गंगाद्वारे भवेद्योग्गः कुम्भनामा तदोत्तमः॥
(अधात् मष में सूर्य हो और कंभ राशि में बहस्पति हो तो गगांद्वार (हरिद्वार) में कुन का उत्तम योग बनता है। ऐसे पर्व पर गंगाद्वार (हरिद्वार) के कंभ पर्व पर स्नान किया जाए तो पुनर्जन्म से मुक्ति मिल जाती है।

कुम्भराशि गते जीवो तथा मेषे गते रवो।
गंगाद्वारे कृतं स्नानं पुनरावृत्ति वर्जनम्॥

हरिद्वार कभ पर्व के स्नान के लिए यह देखा जाता है कि सूर्य, मेष राशि में किसी घड़ी में संक्रमण कर रहे हैं। उसी वेला को 'अमृतवेला' कहा जाता है और उस वेला में गंगा स्नान के लिए स्नानार्थियों में होड़ लग जाती है कि कौन पहले कुंभ पर्व के पनीत अवसर पर 'अमृतवेला' में गंगा में स्नान करें। इस पर बहुत पहले से संघर्ष होता रहा है। संन्यासियों में नागा संन्यासी पहले स्नान का लाभ उठाते रहे हैं। बाद में वैरागी और अंत में संसारी लोग इस अमृतवेला में कुंभ का प्रसाद प्राप्त करने हेतु गंगा में श्रद्धा से स्नान करते हैं। हरिद्वार के कुंभ महापर्व का मेला मुख्यतः रोड़ी बेलवाला मैदान में लगता है। नागा संन्यासियों और स्नानार्थियों के समूह इसी मैदान में होकर मुख्य स्नान स्थल ब्रह्मकुंड तक जाते हैं। नागा संन्यासियों और साधुओं के स्नानार्थ गमन को 'शाही यात्रा' के नाम से जाना जाता है। कुंभ के पुनीत पर्व पर समस्त भारत की भावनात्मक एवं सांस्कृतिक एकता के दर्शन यहीं होते हैं।
कुंभ पर्व के स्नान में संन्यासियों की विशिष्ट भूमिका से ऐसा लगता है कि वेदकाल में या वेदकाल के तुरंत बाद ही कुंभ स्नान का पर्व मनाया जाना शुरू हो गया होगा।

हरिद्वार में कुंभ का मेला मकरसंक्रांति के पर्व से गंगा दशहरा तक चलता है।

कुंभ मेले के मुख्य स्नान पर्व निम्न प्रकार से हैं

1. मकरसंक्रांति - जनवरी
2. वसंत पंचमी - फरवरी
3. माघ पूर्णिमा - फरवरी
4. महाशिवरात्रि - फरवरी, प्रथम कुंभ शाही स्नान
5. चैत्र अमावस्या - मार्च, द्वितीय कुंभ शाही स्नान
6. नवसंवत्सर - मार्च
7. रामनवमी - अप्रैल
8. वैशाखी - अप्रैल, तृतीय कुंभ शाही स्नान
9. बैशाखी अमावस्या - अप्रैल
10. अक्षय तृतीया - अप्रैल
11. गंगा दशहरा

कुंभ में लगभग एक करोड़ व्यक्ति हरिद्वार में स्नान करते आते हैं। यह दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। धार्मिक मान्यता है कि कुंभ के दौरान इन पर्वो पर हरकी पैड़ी के ब्रह्मकुंड में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। देश विदेश से साध-समाज व अखाड़े हरिद्वार में एकत्रित होकर छावनियों व डेरों में प्रवास करते हैं। संत परम्परा के अनुसार वरिष्ठता क्रम में अखाड़ी आश्रमों के संत-महात्मा अपने अनुयायियों के साथ स्नान हेत निर्धारित स्थल से जुलूस के रूप में हर की पैड़ी जाते हैं। इस अवसर पर सामान्य तीर्थयात्रियों के स्नान पर प्रतिबंध रहता है। इस पर्व पर भाषा, प्रांत, रहन-सहन, बोल-चाल, खान-पान और जीवनशैली की विभिन्नता कहीं आड़े नहीं आती, बल्कि सभी स्नानार्थी 'अमृत-कलश' से छलकी हुई 'अमृत-बूंदों को प्राप्त करने हेतु एक ही संकल्प-'परिवार, देश और विश्व का कल्याण हो', लेकर ब्रह्मकुंड (अमृतकुंड) में स्नान करने पहुंचते हैं।

अर्द्धकुंभ (Ardh Kumbh) - अर्ध कुंभ मेला (Ardh Kumbh Mela)

अर्द्धकुंभ मेले का यद्यपि कोई शास्त्रीय या पौराणिक महत्त्व तो नहीं है, परंतु पुरातनकाल से हरिद्वार एवं इलाहाबाद में होने वाले अर्द्धकुंभ मेले भारतीय इतिहास की पहचान बन गए हैं। देशभर से करोड़ों श्रद्धालु पापमुक्ति की अभिलाषा लिए गंगा में डुबकी लगाने हरिद्वार आते हैं। अर्द्धकुंभ के बारे में धार्मिकजनों की मान्यता है कि चूंकि 6 वर्ष बाद जब सूर्य का मेष राशि में संक्रमण होता है, तो खगोलीय स्थिति में बृहस्पति मेष के ठीक सामने कन्या राशि से संक्रमण कर रहे होते हैं। उनका आधाफल लोगों को प्राप्त होता ही है। अर्द्धकुंभ कब शुरू हुआ, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है, परंतु किंवदंती है कि महाराजा विक्रमादित्य के भाई भर्तृहरि महाराज, जिन्होंने ब्रह्मकुंड पर सीढ़ियों का निर्माण कराया, उन्हें ही अर्द्धकुंभ महापर्व का प्रणेता बताया जाता है। यह भी मान्यता है कि हजारों वर्ष पूर्व जब देश के दूरस्थ तीर्थस्थानों पर आने-जाने के साधनों का अभाव था, ऐसे में तत्कालीन चिंतकों ने 12 वर्ष का लंबा अंतराल होने से धार्मिक मान्यता को सहारा देकर कुंभ के आधे समय में आधा फल की अवधारणा को लेकर अद्धकुंभ की परम्परा को जन्म दिया है।
अर्द्धकुंभ के ग्रहयोग के फलस्वरूप सामाजिक सौहार्द तथा धार्मिक मैत्री भाव प्रकट होता है तथा धर्म के प्रति आस्था प्रगाढ होती है। धर्माचार्यों तथा साधु-संतों का मानना है कि महाकंभ की तरह ही अर्द्धकंभ का भी फलित योग बनता है। हिंदू धर्मावलंबियों ने अर्द्धकुंभ को भी पूर्णकुंभ की भाँति आत्मसात कर लिया है। इस अवसर पर तप, दान, यज्ञ, हवन, स्नान तथा मंत्र-अनुष्ठान का भी कुंभ की भाँति ही माहात्म्य