कंभ अर्थात कलश की पूजा सर्वप्रथम करने का विधान सनातन धर्म के भारतीयों में सर्वत्र पाया जाता है। पुराणों में कलश को अमृत-घट कहने की अभिप्राय है। 'पीयूष धारणार्थाय निर्मितो विश्वकर्मणा' के अनुसार इसक सागर-मंथन से उद्भूत पीयूष (अमृत) रखने के लिए किया गया था।
श्रीमद्भागवत, स्कंदपुराण और महाभारत आदि ग्रंथों में एक कथा दर वर्णित है। राजा बलि से जब देवतागण पराजित हो गए और जगह-जगह भटकर, तो अंत में वे भगवान के पास अपनी दुर्दशा का बखान करने बैकुंठधाम पहँचे। पा ने देवताओं को आपदुद्धर्म का महत्त्व समझाया कि 'विपदा में बलवान शत्रु से मेल का हितकर होता है, इसलिए ऐसे समय तुमको राजा बलि से मेल कर लेना चाहिश मेल-मिलाप कर तुम्हें राजा बलि को समुद्र-मंथन के लिए मना लेना चाहिए समुद्र-मंथन से रत्न, औषधि और अमृतादि कई दुर्लभ दिव्य वस्तुएँ प्राप्त होंगी, जिन्हें तुम अपने विशिष्ट ज्ञान से बाँट लेना, ताकि तुम्हारी शक्ति असुरों से बढ़ती रहे।
भगवान के आदेशानुसार देवताओं ने बलि से मेल-मिलाप बढ़ाया और अंत में विश्व कल्याणार्थ विचार-विमर्श किया गया। दोनों पक्षों ने समुद्र-मंथन करने का प्रस्ताव मान लिया। समुद्र-मंथन के लिए मथनी (विचार स्तंभ) की जगह मंदराचल पर्वत को बनाया। वासुकी नाग उस विचार स्तंभ को घुमाने वाले संचालक (डोरी) बने, जिन्हें एक ओर से देवों ने पकड़ा और दूसरी ओर से दानवों ने पकड़कर मथनी के सहारे घुमाना शुरू किया। मथनी के आधार स्वयं भगवान, कच्छप बनकर उस मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण करने वाले बने, जिससे क्षीर सागर को मथने में कोई कठिनाई न हो।
समुद्र-मंथन प्रारंभ हुआ। पहले विष निकला, जिसको पीने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। अंत में शिवजी ने सारा विष पी लिया। तभी से वे नीलकंठ भगवान कहलाए। दूसरी बार कामधेनु गाय निकली, जिसे ऋषियों को दे दिया गया। तीसरी बार उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला, उसे राजा बलि को दे दिया गया। समुद्र-मंथन से चौथी बार ऐरावत हाथी निकला, जिसे इंद्र को भेंट किया गया। पाँचवीं बार कौस्तुभमणि प्राप्त हुई, जिसे भगवान विष्णु को समर्पित किया गया। छठी बार पारिजात नामक वृक्ष निकला। सभी जीवों के हितार्थ यह वृक्ष देवताओं को भेंट किया गया। सातवीं बार नृत्य गुणन्त्विना रम्भा नाम की अप्सरा निकली। उसे स्वर्ग की नर्तकी बना दिया गया। आठवीं बार लक्ष्मी जा निकलीं, जिन्होंने स्वयं अपनी इच्छा से विष्णु भगवान को वरण कर लिया। नवीं बार वारुणी निकली, उसे दैत्यों ने ले लिया। दसवीं बार बाल चंद्रमा प्राप्त हुआ। उसे संसार के कल्याणार्थ आकाश में स्थान दिया गया। ग्यारहवीं बार शंख, बारहवीं बार हरिधनु और तेरहवीं-चौदहवीं बार हाथ में अमृत-कुंभ लिये धन्वंतरि वैद्य प्रकट हुए। यह वहा कुभ-कलश था, जिसका निर्माण बड़े कौशल से देवताओं की संपूर्ण कला समेटकर अमृत रखने के लिए किया गया था।
सदज्ञान (अमृत) के लिए ही यह समुद्र-मंथन हो रहा था। अमृत-घट को देखकर समुद्र मंथन का कार्य बंद हो गया। देव-दानव अमृत-घट को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने लगे। बृहस्पति के इशारे पर इंद्र-पुत्र जयंत 'अमृत-कलश' को लेकर भागे। दैत्य-गुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दानव-दल अमृत-कलश (घट) को छीनने के लिए जयंत के पीछे-पीछे दौड़े। अमृत-कलश को अपने-अपने अधिकार में रखने के लिए देव-दानवों में 12 दिन तक संघर्ष होता रहा। इस अवधि में प्रतिदिन अमृत-कलश को सुरक्षा की दृष्टि से अलग-अलग 12 स्थानों में रखा गया। इन बारह स्थानों में से आठ स्थान स्वर्ग और चार स्थान भूमंडल में स्थित हैं। भूमंडल के चार स्थानों में हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक हैं। इन्हीं चार स्थानों पर अमृत-पूरित कुंभ को रखने-उठाने से अमृत की बूंदें छलकी थीं। अत: इन चारों स्थानों पर प्रत्येक बारहवें वर्ष कुंभ महापर्व का आयोजन होता है। देवताओं के बारह दिन भूमंडल के लोगों के बारह वर्ष के बराबर होते हैं। इसीलिए यह पर्व बारहवें वर्ष मनाया जाता है, जिसे पूर्ण कुंभ की संज्ञा दी गई है। हरिद्वार एवं प्रयाग में एक कुंभ पर्व से दूसरे कुंभ पर्व के बीच छ: वर्ष के बाद अर्द्धकुंभ का आयोजन होता है। ग्रहों की युति को देखकर कुंभ पर्व की तिथियाँ निश्चित की जाती हैं।
सूर्येन्दु गुरु संयोगः स्तद्वाशौ यत्र वत्सरे।
सुधा कुम्भप्लवे भूमौ कुम्भो भवति नान्यथा॥
(अर्थात् जिस दिन सुधा कुंभ गिरने की राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग हो, उस समय पृथ्वी पर कुंभ पर्व का योग पड़ता है।)