आठवीं शताब्दी से चला आ रहा रम्माण मेला जहाँ संपूर्ण रामायण का मंचन मुखौटा नृत्य द्वारा किया जाता है।इनमें पारंपरिक वाध्ययंत्रों ढोल-दमऊ द्वारा 18 तालों(18 प्रकार की धुनें जिनमें ढोल और दमाऊँ की मिश्रित धुनों) पर रामायण का मंचन होता है
यह परंपरा गढ़वाल क्षेत्र में आज भी उतनी ही लोकप्रिय है जितनी आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा शुरू की गई आठवीं सदीं के शुरुआती दौर में थी।
इसमें एक कलाकार श्री राम के जन्म से लेकर उनके रावण वध तक का एक मुखौटा पहनकर नृत्य मंचन करता है। यह अपने आप में एक अनुठी और विशेष नृत्य कला है। इसमें वह सभी पात्र भी होते हैं जो की आमतौर पर रामलीला में भी होते हैं पर इसमें रामायण की तरह कलाकार बातों को नहीं समझाते हैं बल्कि जागर और मुखौटा नृत्य द्वारा इसका मंचन किया जाता है अपनी एक अलग ही पहचान रखने वाले इस मेले को विश्व धरोहरों में भी सम्मिलित किया गया है। इसमें सबसे पहले भूमियाल देवता का पशवा प्रकट होता है उसके बाद संपूर्ण 18 तालों पर जागर के साथ भगवान श्री राम के जन्म से रावण वध तक का संपूर्ण मंचन होता है जिसमें मुखौटा नृत्य प्रचलित है