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भैला- बगवाल : हमारी संस्कृति हमारी विरासत* आओ दीपावली पर्व पर भैला खेलें व आने वाली पीढ़ी को भैला शब्द से परिचित करायें। उत्तराखण्ड की संस्कृति में बग्वाल मनाने के समय भैला खेलने की परम्परा सदियों पूर्व से चली आरही है।लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में भैला बनाने व खेलने की परम्परा उत्तराखण्ड की संस्कृति से विलुप्त होने की कगार पर है।आओ हम अपनी संस्कृति को बचाने का प्रयास करें। भैला व बग्वाल दोनों शब्द एक दूसरे के पूरक हैं।बग्वाल(दीपावली) की सार्थकता भैला बनाकर खेलने की परम्परा  को दर्शाता है।
भैला-बगवाल

भैला- बगवाल

भैला  बनाने में घर के बुजुर्ग अभिभावक बच्चों एवं परिवार के सदस्यों के लिए छोटी बग्वाल ,  बड़ी बग्वाल व एकादसी(इगास) के दिन भैला बनाते हैं। बगवालियों में भैला खेलने की प्रथा काफी प्राचीन है। चीड़ की गिरी जिसे दली (तारपीन वाली लकड़ी)जिन्हें स्थानीय भाषा में छिलके,भीमल की सूखी शाखाओं जिन्हें  केड़े भी कहा जाता है, हिंसर की लकड़ी से भी भैले तैयार किये जाते हैं।  जिनकी छोटी छोटी गठ्ठर के रूप में भीमल की कच्ची छाल, मालू की लता, सिरोले की बेल या स्थान विशेष में उपलब्ध होने वाली लताओं से बांध कर तैयार किया जाता है।साथ ही भैला के गट्ठर से जुड़ी लम्बी मजबूत रस्सी ,जो भैला घूमाने के लिए सहज होती है गट्ठर पर बांध दी जाती है।सबसे पहले सांय के समय लक्ष्मी पूजन के साथ साथ , दीपावली पर बनी स्वांली ,पकोड़ी ,खील, बतासे ,मिठाइयों से भैला पूजन किया जाता है। फिर रात के समय खाना खाने के बाद बच्चे, युवा, बुजुर्ग एक स्थान पर एकत्रित होकर, खुले आँगन, चौराह, ढोल दमाऊं की थाप पर ,भैला जलाकर उसे रस्सी से पकड़ कर एक विशेष तरीके से अपने शरीर के चारों ओर घुमाते हैं।अक्सर भैला खेलते समय एक दूसरे के भैला आपस में टकरा(भिड़)जाते हैं।जिससे मजबूती से बंधा भैला तो अग्नि से धधकता रहता है जब कि कमजोर भैला टूट कर इधर उधर विखर जाता है। और उसकी चिंगारियां दूर दूर तक बिखर जाती हैं जिससे कभी पशुओं के लिए रखा घास, पुआल, घास की परोड़ीपर चिनगारी पड़ जाने से आग लग जाया करती है। अतः समझदारी से भैला ऐसे खुले स्थान में खेला या घुमाया जाता है जिसके इर्द गिर्द घास फूंस न हो। कुछ लोग जलते हुए भैला को घुमाने में काफी प्रवीण होते हैं।वे दोनों टांगों के मध्य  बारी बारी से घुमाकर ,अन्य लोगों के लिये प्रशंसा के पात्र बनते हैं। जिसे( टांग भैलु)कहा जाता है।भैला खेलने के कई तरीके होते हैं ।जैसे कांख भैलु, कमर भैलु, मुण्ड भैलु, शरीर के ऊपर, पैरों के नीचे ,दाएं, बाएं, कमर वाले भाग के चारों तरफ भैला घुमाकर शरीर की शुद्धि की जाती है।अग्नि से प्रज्वलित भैला घुमाते समय, भैलू भैलू ,बार महीने में आने वाली बगवालियों का भैलु,स्वांली, पकौड़ियों  कू भैलु।भैलु ,भैलु आदि गीत के बोलों के साथ घुमाया जाता है।छोटे बच्चे एवं वुजूर्ग घर की दहलीज, आँगन,व छत पर भैला खेल कर अपनी उम्र से जोड़ते हैं।कि इतनी बग्वाली खा लिये।कौन  भाग्यशाली होगा जो आनेवाली बगवालियों को देख पायेगा।इसलिये बुजुर्गों के हाथों में घर के सदस्य जबरदस्ती भैला देकर बुजुर्गों से आशीर्बाद लेते हैं। उम्र में छोटा बड़ा जताने के लिए लोग यह कहा करते थे कि मैनें तुझसे इतनी (संख्या) में ज्यादा बग्वाली खा रखी हैं यानी में तुमसे इतने साल बड़ा हूँ ।दर्शाता है। खरीफ की फसल कट जाने के बाद कार्तिक मास में चतुर्दशी एवं आमावश्या को क्रमशः छोटी दीपावली/बड़ी दीपावली के दिन एवंदीपावली के ग्यारह दिन बाद, एकादशी तिथि को आनेवाली (इगास) को भैला बनाकर खेलने की प्रथा सदियों से चली आरही  है।लेकिन आज आधुनिकीएवं बाजारीकरण की आपाधापी में बगवालियों के अवसर पर भैला बनाने व खेलने की परम्परा उत्तराखण्ड की संस्कृति से नदारद(विलुप्त)है। इसका कारण बाजार में उपलब्ध विधुत उपकरण, भव्य व सुन्दर मकान,विद्युतीकरण, सुन्दर फैशन के कपड़े, साज सज्जा, की उपलब्धता भी है।लेकिन हमें अपनी परंपराओं को अविरल रखने हेतु उन्हें संजो कर रखना होगा। अब तो भैला को जीवित रखने के लिए उत्तराखण्ड के उत्साही युवा बगवालियों के समय स्थानीय स्तर पर भैला बनाकर उन्हें बेचकर अपनी आजीविका से जोड़ कर भैला खेलने की संस्कृति को जीवन्त किये हैं। हमारे पूर्वजों ने देशकाल परिस्थिति को मध्यनजर रखते हुए कुछ ऐसे सुन्दर रीतिरिवाज, व्यवस्थाएं की हैं।जो हमें आपसी भाईचारा, प्रेम, अपनत्व, एकता, सामाजिक सम्बन्ध, पारिवारिक समरसता,शरीर के लिये अनुकूल हो, को सम्मिलितकिया है। दीपावली के पावन पर्व में भैला प्रकाश का सूचक है।अंधकार से प्रकाश की ओर, असत से सत्य की ओर ,(असतो मा सद गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय )  भैला प्रदर्शित करता है।  कवि गोपाल दास नीरज जी की कविता जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं राह न जाए। मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में , नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा, कटेंगे तभी अंधेरे घिरे जब, स्वयं धर मनुज दीप केरूप आए। दीपावली के दीप जलाकर रोशनी करना तो उत्सव का एक रूप है जो कि रात तक सिमट जाता है।पर असली दीवाली तब मनेगी जब सम्पूर्ण संसार के लोगों के हृदय अन्दर से जगमग हो जाएं। सबके जीवन में प्रकाश हो सबका जीवन मङ्गल मय एवं कल्याणकारी हो।दीपावली(बगवालियों/दीपोत्सव) के अवसर पर उत्तराखण्ड में   हम सब भैला की संस्कृति को जीवित रखें। दीपावली पर अपने आप व अपने बच्चों को भी उत्तराखंड में लाकर भैला  की विलुप्तता को बचाने में अपने उत्तराखण्ड की संस्कृति को संरक्षित करने में सहयोग प्रदान करें। पुनः इसबार भैला के साथ ,दीपोत्सव के शुभपावन अवसर पर सभी को हार्दिक बधाई,मंगलमय शुभकामनाएं। उत्तराखण्ड की अपनी संस्कृति सदैव अक्षुण बनी रहे।

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